मंगलवार, 9 फ़रवरी 2016

क्योंकि ये पल तो जाने वाला है



एक पल । यूं तो कहने को हर रोज 24 घंटे में हम कितनी पल देखते हैं । सुनते हैं । हर पल कुछ कर रहे होते हैं ...कुछ बना रहे होते हैं तो
कुछ यूं ही गवां रहे होते हैं । सागर के विस्तार जैसे इस वक्त के समंदर  से धीरे-धीरे इसी तरह ये मोती जैसे पल रोज़ाना कैसे हाथों से फिसल जाते हैं ...और काल
की रेत में समा जाते हैं बिना किसी वजूद के । इन गंवाएं पलों पर किसी तरह की छाप भी नहीं होती न कोई रंग होता है न इनका कोई स्वाद और
न ही कोई गढन । रीते ...खाली ...सूने ऐसे ही होते हैं ये पल जो शाख से किसी पत्ते की तरह गिर जाते हैं ।

तो ये लाज़िम है कि ऐसे किसी भी पल को गंवाया जाए न । कुछ भी उसके साथ किया जाए । पर गंवाया जाए ना । क्यों न उस पल को गुनगुनाया
जाए ...सिला जाए खूबसूरत ख्यालों की पैहरन की तरह ...धुनों से या फिर लफ्जों से । उस पल में रंग भरे जाएं कुछ खूबसूरत रंगीन ख्यालों के ।
इंसानियत और प्यार के ज्जबे से लबरेज  उस पल को एक कंबल बना कर ओढ़ा जाए और रुहानियत महसूस की जाए । क्यों न एक कहानी या
कविता लिखी जाए ....। वो कहानी जिसका पहला पन्ना इंकलाब तो आखिरी पन्ना एक ऐसी दुनिया की परिकल्पना हो जो खूबसूरत हो, समान हो
न्यायपूर्ण हो । क्यों न उस पल को उस खूबसूरत कविता बना दिया जाए जो सूरज की रोशनी और फूलों की खूशबू से ज़िंदगी को गुलज़ार करती हो ।

आओ दोस्तों उस पल को यूं न जाने दो । न रितने दो । न गंवाओ । उस पल को जो तुम चाहे वो बनाओ

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें