शनिवार, 30 जनवरी 2016

क्योंकि ये शायर पल दो पल पल का नहीं

बॉलीवुड में गीतकार बहुत हुए । हर ज़माने में उम्दा से उम्दा शायरी लिखी गई । जीवन और उसके रंगों को गीतों को शक्ल देने का काम भी बखूबी हुआ । लेकिन जो बात साहिर में थी शायद किसी में ना थी । साहिर अपनी तरह के अनूठे शायर हुए । वो पल दो पल के शायर कतई नहीं थे । वो अपनी शर्तों पर जीने वाले ,अपनी शर्तों पर लिखने वाले थे । "जला दो इसे फूंक डालो ये दुनिया '' लिखने वाला शख्स किस तरह इस दुनिया के खोखलेपन को नंगा करने के लिए किन आंतरिक संघर्षों से गुज़रता होगा ज़रा सोचिए ।                                                                   

एक कहानी सुनिए बात इसी फिल्म के एक शो की है ,मुंबई के मिनर्वा टॉकीज़ में फिल्म दिखाई जा रही थी जैसे ही "जिन्हें नाज है हिंद पर " गाना शुरू हुआ , तो दर्शक सीट से उठ खड़े हुए और गाने के खत्म होने तक हॉल तालियों के शोर से गूंजता रहा । दर्शकों की मांग पर इसे तीन बार और दिखाया गया । फिल्म इंडस्ट्री के इतिहास में शायद ऐसा पहले नहीं हुआ । साहिर  हिन्दी फिल्मों के ऐसे पहले गीतकार थे जिनका नाम रेडियो से प्रसारित फरमाइशी गानों में दिया गया, इस तरह वे पहले गीतकार हो बन गये जिन्होंने गीतकारों के लिए रॉयल्टी का इंतजाम कराया ।  पहले किसी गीतकार को रेडियो से प्रसारित फरमाइशी गानों में श्रेय नहीं दिया जाता था।

अब जबकि संजय लीला भंसाली साहिर पर फिल्म बनाना चाहते हैं तो किसी को आश्चर्य ही नहीं हुआ । साहिर की ज़िंदगी को अगर फिल्म की शक्ल दी जाए तो उसका हर एक फ्रेम ऐसे रंगों से लबरेज़ होगा जो हर एंगल से रौशन और खूबसूरत है । भंसाली कहते हैं कि वो निजी जीवन में साहिर से खुद बहुत प्रभावित रहे हैं और उनकी फिल्मों में प्रेम और सूफियत को लेकर जो एक छायावाद किस्म का रोमांटिसिज्म है वो साहिर की ही देन है । भंसाली की बातों में दम हो सकता है । ये सही है कि साहिर क्रांति के कवि थे जिनकी नज्मों के केंद्र में मजलूमों की बेबसी और सियासत और समाज का क्रूर चेहरा  था । लेकिन आखिरकार वो प्रेम के ही शायर रहे । वो प्रेम जो अपने में क्रांति, साहस ,संवेदनशीलता और इंसानी जज्बे के उजले पक्ष को खुद में समेटे था ।

भंसाली की फिल्मों में भी प्यार का रंग ऐसा ही उज्जवल दिखाया गया है । इश्क ऐसा हो कि वो पाकीज़गी के उस समंदर की तरह हो जाए जिसमें इंसान डूब कर ही मंज़िल पा जाता है । 'बाजीराव मस्तानी ' में दोनों प्रेमियों की मंज़िल एक ऐसी दुनिया की कहानी है जहां धर्म और जाति की दीवारें प्रेम की राह को संकरी न बना पाएं तो ' रासलीला ' में प्रेम के आगे ज़िंदगी ही छोटी दिखने लगती है ।  फिल्म ' ब्लैक ' और ' गुज़ारिश ' प्रेम के एकदम जुदा सिरे को ही पकडते हैं । लेकिन सभी फिल्मों के मूल भाव में प्रेम ही है ।

साहिर की ज़िंदगी में भी प्रेम तो हमेशा रहा लेकिन दुनियावी मंजिलें हासिल न हो पाई । उनका और अमृता प्रीतम का प्रेम समझने के लिए दुनियावी नज़र को पार रख कर देखना होगा । दो साहित्यका्रों का प्रेम ऐसा ही था अव्यक्त लेकिन अधूरा नहीं । सृजन के लिए जिस बौद्धिक ज़मीन की ज़रुरत होती है वो ऐसे ही रिश्तों में सामने आती है । दुनिया की नज़र में जो प्रेम अधूरा रह गया उसे साहित्य की शक्ल में एक प्रेरक ठंडी छांव नसीब हो गई थी । यूं कहा भी जाता है कि असल में सृजन की राह ऐसे ही जज्बातों का सफर तय करती है । 


साहिर की ज़िंदगी में सुधा मल्होत्रा नाम की एक गायिका भी आई पर शादी दोनों से ही न हो पाई । धर्म आड़े आया । साहिर की ज़िंदगी अपने आप में एक अनूठी प्रेम कहानी है जिसे भंसाली ने अपने ही तरीके से अलग-अलग फिल्मों की सेंट्रल थीम बनाया ।


 साहिर पर फिल्म बनना ज़रुरी है । बहुत जरुरी है ताकि आज की नई पीढ़ी उस दौर को , उस शख्सियत को समझे । वो जाने एक शायर की कहानी । ये भी जानें कि ये शायर पल दो पल का नहीं था । अपने गीतों के ज़रिए समाज की जिस गंदगी की ओर ध्यान दिलाना चाहता था वो आज ज्यादा बदबूदार है । आम आदमी की मजबूर सांसें आज भी सियासत के फंदे में कैद हैं । लेकिन रास्ता सिर्फ संघर्ष ही है । एक शायर की शक्ल में साहिर का जीवन इन्हीं सवालों और जवाब पाने के संघर्ष से घिरा रहा । वो शायर जो अपने फन में माहिर था , जो सवाल उठाता था,जो जवाब मांगता था । आज की पीढ़ी के सामने  हीरोज़ की कमी है । वो प्रेम , करूणा , साहस से जीवन जीने वाले लोगों को नहीं जानते । ज़रुरी है कि वो साहिर को जानें ।

क्योंकि साला खडूस सिस्टम के लिए ज़रुरी है

दो फिल्मे बैक टू बैक । आइडिया बुरा नहीं था । बस सुबह उठना पड़ा । उससे पहले फिल्म के टिकट रात को ही बुक करने पड़े। तो वीकेंड पर दो फिल्में ऐसे ही देखी । एयरलिफ्ट पहले शो में बाद में साला खड़ूस । पहली फिल्म की तारीफें सुन रखीं थी और दूसरी मैं देखकर तय करना चाहती थी कि फिल्म कैसी है । पहली फिल्म एवरेज और दूसरी एवरेज से भी नीचे । दो अलग कहानियां उन कहानियों में उलझे किरदार और उनकी कशमकश को सुलझाता जुदा जुदा स्क्रीन प्ले । सब कुछ अलग कुछ साम्य नहीं सिर्फ एक बात
 और वो ये कि बने बनाए...रटे रटाए एक लीक पर चलते सिस्टम में कई बार कुछ कलपुर्जे अलग वजूद अख्तियार कर लेते हैं जैसे किसी पेड़ के इर्द गिर्द उमजा एक नन्हा पौधा जो वक्त आने पर कई ऐसे काम आने लगता है जैसे कभी वो बड़ा पेड़ आया करता था एयरलिफ्ट कहानी है एक कुवैत में हुए एक एवैक्यूएशन ऑपरेशन की जिसको लेकर विवाद खूब हुए कि सरकार की भूमिका सही तरीके से नहीं दिखाई गए ...वगैरह वगैरह । वहीं दूसरी कहानी है स्पोर्टस में फैले भ्रष्टाचार और दूसरी गंदगियों के बीच धुन के पक्के,काम के
माहिर दो स्पोर्टसपर्सन्स की । जिसमें एक मुख्य किरदार को साला खडूस के नाम से दुनिया जानती है ।ठीक है वो खड़ूस है क्योंकि वो सच्चा है उसमे मिलावट नहीं । जब इंसान किसी हुनर को ज़िंदगी मान बैठता है और अपने काम को दुनिया तो वो बाकी दुनिया के लिए खडूस हो जाता है । क्योंकि ये दोनों धाराएं अलग-अलग चलती हैं । ट्रैक एक ही होता है और उस पर ही नज़र जमाए रखने  के लिए हुनर को इबादत बनाना होता है और इसके लिए बाहर का दुनियावी मुलम्मा उतारना पड़ता है । इसी लिए कोई कोई शख्स इस टाइटल से नवाज़ा जाता है साला खडूस । वहीं कुछ-कुछ यही बात दूसरी कहानी पर भी लागू होती है । हर सिस्टम
में चाहे देश काल कोई भी हो कुछ लोग (चाहे उन सरोकारों से उनका सीधा राब्ता भी न हो ) अलग चलते हैं ..सही लीक पर चलते है लकीर के फकीर नहीं बनते और ऐसे ही लोग सिस्टम के वाकई चलने के लिए भी ज़िम्मेदार हैं । जैसे की फिल्म एयरलिफ्ट में में ज्वाइंट सेक्रेटरी का काल्पनिक किरदार । ऐसे अनसंग,अनहर्ड हीरोज की तरह जिन्हें वाकई किसी वाहावाही या तारीफ की जरुरत तक  नहीं होती । वो हैं क्योंकि अच्छाई का वजूद है । तो ये वही खडूस है जिनके दम पर सिस्टम खुद के होने का दम भरता है ।