सोमवार, 19 अक्तूबर 2015

क्या विदर्भ का राह चल निकला है मालवा ?



''सफेद मक्खी का हमला ऐसा था जैसे कि पर्ल हार्बर पर बमों की बारिश , कोई कुछ समझ पाता इससे पहले सब बर्बाद हो गया । पंजाब के एक कपास किसान ने अपनी
 बर्बाद फसल का ऐसे ही शब्दों में शोक मनाया । पिछले दिनों कपास के खेतों में हुआ वो एक ऐसे बुरे सपने  के लौटने जैसा है जिसका दंश यहां की धरती पहले भी झेल चुकी है ।
 90 के दशक में कपास पर अमेरिकन सुंडी के अटैक से बर्बाद हुई खेती ने कुछ ऐसे ही हालात बनाए थे । ये अलग बात है कि इस बार नकली कीटनाशक ने तो किसानों को कहीं का ना छोड़ा ।
बर्बाद फसल ने कई घरों को बर्बाद कर डाला । लेकिन ये बात भी बहुत पुरानी बात नहीं जब 2002 में बीटी कॉटन को खेतों में उतारने के लिए खूब हो हल्ला किया गया था ।
 उसे हर मर्ज़ की दवा बताया गया था ।  दावा किया गया था कि बीटी कपास में बैसिलस-थरंजेनिफसिस का प्रत्यारोपण करने से एक विशेष प्रकार की सुंडी नहीं लगेगी ।
ज्यादा कीटनाशक नहीं डालने पड़ेंगे और  लागत कम पड़ेगी लिहाज़ा महाराष्ट्र से लेकर पंजाब तक कपास  किसान बी टी बीजों के सहारे ही खेती में जुट गए । लेकिन अब एक दशक बाद
विदर्भ को किसानों की कब्रगाह में तब्दील होते सबने देखा है । डर इस बात का है कि कहीं पंजाब इस खतरनाक सिलसिले की अगली कड़ी तो नहीं बन रहा है ।

एक आधिकारिक सर्वे के आंकड़े बताते हैं कि पंजाब में  2000 से लेकर 2010 तक करीब 7 हज़ार किसानों ने खुदकुशी की है । 2010 के बाद भी किसानों की ये हताशा रुकी नहीं है ।
ये सारी आत्महत्याएं कर्ज के  दुष्चक्र  के चलते हुई हैं ऐसे में ये सवाल अपने में डराता है कि क्या पंजाब वाकई महाराष्ट्र की राह चल निकल पड़ा  , तो क्या कपास की बीटी बीजों से खेती
ऐसे हालातों के लिए बड़े तौर पर जिम्मेदार है ?  जानकारों की राय में बीटी कॉटन की खेती के एक दशक बाद ये साफ हो गया है  कि तात्कालिक रुप से ये किसानों के लिए
फायदे का सौदा हो सकता है लेकिन बाद में ये महंगी ही साबित होती है ।  सही है कि इस से सुंडी नहीं आई लेकिन दूसरी तरह की नई बीमारियों से ये खेती को बचा पाने में नाकमयाब साबित
हुई । महंगे रासायनिक स्प्रे के ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल और दूसरे खर्चों ने महाजन के ऊपर  किसान की निर्भरता को खतरनाक तरीके से बढ़ा दिया है ।

ज्यादातर पंजाब के बठिंडा,मुक्तसर,फिरोज़पुर और फरीदकोट में बी टी कपास की खेती होती है । रासायनिक स्प्रे और कीटनाशकों ने यहां के पानी का ऐसा हाल कर दिया है कि कैंसर की बीमारी आम
हो चली है । बठिंडा से तो एक ट्रेन बीकानेर के लिए हर रोज़ चलती है, जिसे कैंसर एक्सप्रेस ही कहा जाने लगा है । बीकानेर के पास एक सरकारी कैंसर अस्पताल है,जहां सस्ता इलााज किया जाता है ।

लेकिन मूल सवाल वही है कि क्या खेती के व्यवसायीकरण ने बड़े पैमाने पर ऐसे हालात पैदा किए हैं कि जहां किसानों को खेती का रास्ता आत्महत्या कर तय करना पड़ रहा है ?  ऐसा क्यों देखने में आ रहा है कि
ज्यादातर वही किसान खुदकुशी करते दिख रहे हैं जो नकदी फसलों की खेती से जुड़े हुए हैं ?  गन्ना और कपास की खेती करने वाले महाराष्ट्र के किसानों का हर साल बढ़ता आंकड़ा इस बात की गवाही देता
है कि ये दरअसल ' मुनाफा ही सब कुछ है 'को मानने वाला अर्थतंत्र ही ऐसे हालात पैदा कर रहा है ।  खेती में मुनाफ़ा कमाने की सरकार की नीति ने ही किसानों के सामने ये रास्ता रख दिया है क्यों जानकार
इस बात की तस्दीक करते हैं कि आत्महत्याओं का ये सिलसिला 90 के दशक के उदारीकरण के बाद  पैदा हुआ ऐसा संकट है जो अब एक तल्ख सच्चाई की तरह आंखें मिला रहा है । पहले अकाल और सूखे से जूझने वाला
किसान ज़िंदगी की जंग इस तरह न हारता था जैसा आज देखने को मिल रहा है ।