रविवार, 12 जुलाई 2015

ग्रीस कैसे बना नेशन फॉर सेल ?


बीते दिनों ग्रीस की संसद में एक प्रस्ताव पारित किया गया "कि देश बिकाऊ है ,बोली लगाओ और खरीद लो । इस प्रस्ताव के तहत देश की कई संपत्तियां नीलामी के लिए तय कर दी गई हैं । ये बेहद हैरत भरा है देखना
कि दुनिया को प्लेटो ,अरस्तु का दर्शन देने वाला देश कैसे देखते देखते कंगाल हो गया । अपने राजनीतिक और आर्थिक दर्शन से दुनिया भर को राह दिखाने वाली सभ्यता कैसे उस चौराहे पर खड़ी हो गई जहां से हर रास्ता
बेमंज़िल दिखाई पड़ता है । लोकतंत्र, सत्ता और आर्थिक व्यवस्था के बुनियादी असंतुलन के जिस खतरनाक मुहाने पर ग्रीस इस वक्त खड़ा है उसकी शुरुआत तो कई साल पहले हो गई थी लेकिन शायद किसी इतने खराब हालातों की ऐसी आशंका नहीं लगाई होगी ।
अर्थशास्त्री इस संकट के पीछे के कारणों को लेकर कई तरह की थ्योरी सामने रख रहे हैं कि कैसे यूरो ज़ोन की आर्थिक रिश्तेदारी ने ऐसे हालात पैदा होने में मदद की ? कैसे केंद्रीय बैंक ने प्रतिस्पर्धात्मक अवमूल्यन कर  आग में घी डालने का काम किया । कुछ का कहना है कि संकट ग्रीस की सोशलिस्ट सरकार की कल्याणकारी स्कीमों के बोझ के चलते बढ़ा जबकि कर्ज के मारे अर्थव्यवस्था के कंधे टूटे जा रहे थे वहीं कईयों का कहना है कि ये  पूंजीवादी व्यवस्था के पराभव का शुरुआती दौर है ,जिसके कई खतरनाक पडाव अभी इस दुनिया के लिए देखने बाकी हैं और ग्रीस तो शुरुआत भर है ।
 बात सही भी है ग्रीस का मौजूदा संकट पश्चिम के उस तथाकथित उदारवाद की ऐलानिया विफलता है जिसने उधारवाद की संस्कृति को बढ़ावा दिया। किसी ने कहा सही ही कहा  कि ये संकट आयातीत संकट है , इस बात को अगर बहुत मोटे तरीके से समझा जाए तो एक उदाहरण ही काफी है , दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र और शक्तिशाली देश अमेरिका इस संकट में आकंठ डूबा है , बस फर्क इतना है कि बुलबुला अभी फूटा नहीं । यूरोज़ोन की जिस आर्थिक सिस्टम में ग्रीस और दूसरी कमज़ोर अर्थव्यवथा वाले देश खुद को असहाय पा रहे हैं वो दरअसल अमेरिका का ही आर्थिक दर्शन है । अमेरिका की जनसंख्या इस वक्त 30 करोड़ है  पर वहां बाज़ार में 120 करोड़ क्रेडिट कार्ड घूम रहे हैं । सोचने वाली बात है कि किस तरह क्रेडिट कार्डधारी ये कर्ज़ा चुका पाएंगे । यहां क्रेडिट हर बात का मूलमंत्र है ,जितना मन आए कर्ज लीजिए पर उसे लौटाने का कोई रास्ता नहीं ।

ये  चार्वाक का ही दर्शन है जिन्होंने कहा था कि जो बाज़ार में उधार मिले ले आओ ।ज ब चुकता करने का वक्त आए तो हाथ खड़े कर दो ,कोई तुम्हारा क्या बिगाड़ लेगा । ग्रीस ने भी हाथ खड़े कर दिए हैं ...ये तो शुरुआत है । बात अगर भारत की  करें तो अगर संभले नहीं तो कुछ सालों में यही हाल देखने को मिल सकता है । पिछले ढाई दशक से भारत भी मुक्त अर्थव्यवस्था और उदारवाद के मायाजाल में उलझा हुआ है। विदेशी कर्ज पूंजी निवेश के नाम पर हमारे अर्थतंत्र की  रगों में खून बनकर दौड़ रहा है। सत्ता में बैठे लोग वैचारिक  भिन्नता भूलकर आर्थिक सुधारों की भूलभुलैया में फंसते जा रहे हैं। भारत का परंपरागत आर्थिक चिंतन धूल खा रहा है तथा भोगवादी मानसिकता नई संस्कृति के रूप में उभरी है।

अच्छे दिनों के पैरोकार प्रधानमंत्री विकसित देशों से ऋण लेने को लेकर जिस तरह आतुर दिख रहे हैं ये भी कोई अच्छे संकेत नहीं । ग्रीस की बीमारी जो सबको आज दिख रही है उसके मूल में विकसित देशों के तौर तरीके ही हैं,कुछ समय बाद संभव है कि इसके लक्षण भी दिखाई देने लग जाएं । 

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