गुरुवार, 25 जून 2015

एरिन से राजेश तक.......



एरिन ब्रोकोविच.....कुछ साल पहले आई इस फिल्म ने न सिर्फ टिकट खिड़की पर  अच्छी खासी कमाई की थी बल्कि फिल्म की अभिनेत्री जूलिया रॉबर्ट्स को बेस्ट अभिनेत्री का ऑस्कर दिलाया था ।
फिल्म की कहानी तीस पार की एक ऐसी महिला की थी जिसे अमेरिकी समाज में आम महिला कहा जा सकता है । दो बार तलाक,तीन बच्चे और कोई  रेगुलर जॉब नहीं । कुल मिलाकर एरिन एक आम अमेरिकी की कहानी है, जिसमें नया मोड़ तब आता है जब वो एक लीगल फर्म में बतौर क्लर्क काम करते हुए अपनी पड़ताल के ज़रिए एक बड़ी कंपनी को घुटने टेकने पर मजबूर कर देती है ।  दरअसल एरिन की पड़ताल दुनिया के सामने ये सच लेकर आती है कि  पैसिफिक एंड इलेक्ट्रिक कंपनी के प्लांट्स ने ने एक पूरे शहर के पानी को 30 सालों तक खतरनाक ढंग से जहरीला बनाया ।  नतीजतन एरिन की फर्म अमेरिकी इतिहास का सबसे बड़ा मेडिकल लीगल सेटलमेंट का केस जाती है ।  ये अलग बात है कि केस की कामयाबी और पैसे के एंगल को लेकर आलोचनाएं भी हुईं ।

एरिन का वाक्या इसलिए याद आया कि उसकी साधारण सी दिखने वाली ज़िंदगी में अगर कुछ खास था तो उसकी हिम्मत , लड़ने की बगैर ये सोचे कि सामने वाला कितना शक्तिशाली है और उसके मुकाबले उसके खुद का अस्तित्व क्या है ....। क्या आखिर में उसे जीत हासिल होगी की नहीं ?  यानि एक चीज़ जो महत्वूर्ण रह गई वो है लड़ने का जज्बा । जो न खुद के अभावों की परवाह करता है ना दुनियादारी के तकाज़े का ।

ऐसी कहानियां गाहे बगाहे आपकी ज़िंदगी में आती जाती रहती हैं और आप पर एक अमिट छाप छोड़ जातीं हैं । एक ऐसी ही कहानी है भोपाल के राजेश की , इस शख्स ने देश के सबसे बड़े बैंक के खिलाफ़ केस लड़ा और जीता भी महज पांचवीं तक पढ़े राजेश की हिम्मत के आगे एसबीआई के वकीलों की ऊंची तालिम बेकार ही साबित हुई । दरअसल बात 2011 की है जब राजेश को मालूम पड़ा कि उसके बैंक अकाउंट से 9200 रुपये गायब हैं , जबकि पैसा उन्होने निकाला ही नहीं था

इसके बाद राजेश ने  वहीं किया जो अमूमन कोई भी आम आदमी करता है,अकाउंट में गड़बड़ी की शिकायत लेकर वो बैंक अधिकारियों के पास पहुंचे तो वहां से भगा दिेए । लेकिन हार तब भी न मानीं बात मुंबई स्थित मुख्यालय में भी पहुंचाई गई  लेकिन बात न बनी ,आख्रिर राजेश ने शिकायत  डिस्ट्रिक कंज्यूमर फोरम  में दर्ज कराई। वकील करने के पैसे तो थे नहीं लिहाज़ा खुद ही अपना पक्ष कोर्ट के सामने रखा । कई सुनवाईयों के बाद फैसला राजेश के हक में गया । इतना ही नहीं कोर्ट ने आदेश दिया कि वो 6 फीसदी ब्याज़ के साथ उसकी खोई रकम अकाउंट में डाले । और ग्राहक को मानसिक तनाव देने के आरोप में बैंक 10 हजार अलग से दे ।

कहानियां दो हैं लेकिन सबक एक ।  हिम्मत का सबक । एरिन और राजेश की कहानियों का देशकाल,  केस सबकुछ अलग है । लेकिन एक बात जो कॉमन है वो है उनकी हिम्मतभरी सोच. जहां तक रोटी-रोजी के ख्यालों से दोचार होता आम ज़िंदगी की आम परेशानियों से रोजाना जूझ रहा शख्स सोच नहीं पाता ।   खुद से जुड़े सच और दूसरे पक्ष से जुड़े झूठ को वो देखने की कोशिश तो करता है , लेकिन मुश्किलात और दुनियावी समझदारी के आगे वो तस्वीर धुंधली हो जाती है ।  सबसे बड़ी हार यहीं से शुरु होती है । जिस सच को आप खुद नहीं देख पाते तो उसे दूसरों को कैसे दिखाएंगे ।

बस राजेश और एरिन जैसे लोगों और दूसरे आम लोगों में यही फर्क है

शनिवार, 20 जून 2015

मैं तो लालू प्रसाद यादव बनना चाहता हूं

एक किस्सा सुनिए----कोटा में   डॉक्टरी का  कंपीटिशन पास करने के लिए  कोचिंग क्लासेस  लेने बिहार से आया  एक लड़का मानसिक दबाव में रहने लगा .  माता पिता की  ख्वाहिश थी  कि वो डॉक्टर बने  ,लिहाज़ा लड़के को कोटा भेजा कि  कंपीटिशन पास करे और डॉक्टर बने......। लेकिन क्लास पर क्लास और रट्टेबाज़ी की संस्कृति में वो कहीं न कहीं खुद को अनफिट पा रहा था । नतीजा ये  कि पढ़ाई का दबाव माता-पिता की इच्छा पर भारी पड़ा और लड़का मानसिक तनाव में रहने लगा ।  बेटे की बिगड़ी मानसिक हालत के बारे में जब माता-पिता  को मालूम पड़ा तो भागे-भागे बिहार से आए और बेटे को मनोचिकित्सक के पास ले गए ।  थेरेपी के दौरान लड़के  ने मनोचिकित्सक को बताया कि वो तो डॉक्टर बनना ही  नहीं चाहता , मां बाप का दबाव था इसलिए कोटा आया, क्लासेस लेनी शुरु भी की ,लेकिन मन का कोई क्या करे लाख चाहकर भी वो कंपीटिशन की रेस में फर्राटे से भाग नहीं पा रहा था और  धीरे धीरे खुद को  पिछड़ता महसूस कर रहा था । वो तो गनीमत थी कि वक्त से पहले उसे मनोचिकित्सक के पास ले जाया गया, वरना डॉक्टर बनने का बोझ कब गले का फंदा बन उसकी जान ले लेता कोई नहीं जानता था ।


कोटा में इस तरह की कहानियां अपने कहीं  ज्यादा दुखद परिणामों के साथ अखबार की सुर्खियों की शक्ल में दिख जाती हैं । सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 2015 में अब तक यहां के कोचिंग संस्थानों में पढ़ने वाले 11 छात्र खुदकुशी कर चुके हैं । इनमें से ज्यादातर ऐेसे हैं जो पढ़ाई के दबाव के आगे हार मान बैठे और जिंदगी का खात्मा कर लिया ।

हैरानी इस बात पर है कि बच्चों के जरिए मां-बाप की अपने सपने पूरे करने की जिद बच्चों की जिंदगी पर ही भारी पड़ रही है ।  ये बीमारी हर फील्ड में आ गई है और इस घेरे में बचपन की मासूमियत अनजाने ही रौंदे जा रही है । कभी आपने गौर किया है कि ये इंडियन आइडल ,मास्टरशेफ,इंडिया हैज़ गॉट टैलेंट
में बच्चों के सेलेक्ट न होने पर बुक्का फाड़ कर रोने वाले और जजों की जजमेंट पर ही सवाल उठाने वाले ये लोग कौन हैं जो बच्चों की क्षमताओं को रबड़ की तरह खींचते हैं । क्या ये माता-पिता नहीं जानते कि बचपन को बांधा नहीं जाना चाहिए ,उनके भीतर की क्रिएटिविटी को सिर्फ  बहने देना चाहिए ।


बच्चों का मार्गदर्शन करने ,प्रोत्साहित करने  , ज़िंदगी की नई राह दिखाने में, और उन पर आकांक्षाओं की गठरी डाल देने में फर्क है , माता-पिता को इस महीन लाईन के  बारे में समझना होगा । ये समझना होगा कि बचपन उस स्वच्छंद नदी की तरह होना चाहिए ,जिसमें  सहज लयात्मक बहाव हो न कि ठहराव ।

इंडियन आइडल में एक 5 साल का बच्चा जजेस से बार बार खुद को सेलेक्ट करवाने के लिए शिद्दत से कहता रहा , जज के समझाने के बावजूद वो स्टेज से वापस नहीं गया । पूछने पर उसने बताया कि वो पिछले साल भी ऑडिशन के लिए आया था और फेल हो गया था , इस बात को लेकर उसके पिता ने साल भर न सिर्फ
सुनाया बल्कि ऑडिशन में आने से पहले ये भी ज़ोर देकर कहा था.....कि देखो इस बार जीत के आना


और हां जिस लड़के का जिक्र पोस्ट शुरु होने के वक्त  किया था,वो डॉक्टर नहीं लालू प्रसाद यादव बनना चाहता था ।



रविवार, 14 जून 2015

नहीं तुमने अपनी सज़ा नहीं काटी है


''मुझे गुस्सा आ गया और मैंने उसे थप्पड़ मार दिया,वो फर्श पर गिर पड़ी ये मैंने देखा,इसके आगे का नहीं पता''।

 पांच फुट सात इंच लंबा शख्स कद काठी आचार- व्यवहार से 60 साल के किसी भी उस आदमी की तरह है जैसा कि अमूमन गांव  निम्न मध्यमवर्गीय परिवार का कोई शख्स होता है ।  छोटे से,लेकिन साफ-सुथरे  आंगन में धूप का एक टुकड़ा , पॉलिएस्टर के तार पर सूख रहे दो पाज़ामे और कमीज़ पर पड़ उन्हें केसरी रंग दे रह है । दीवारों पर सफेदी का पाउडर कई जगह से हटा हुआ है ,दो कमरे  के साधारण से घर में अतिसाधारण
कपड़े पहने ,मकान  के पहले और सबसे बड़े कमरे की देहरी पर खड़े होकर वो जो कुछ बता रहा था, वो अपने आप में बेहद असाधारण बात थी ।
ये शख्स सोहनलाल वाल्मिकी है,  जो कैमरे के सामने अरूणा शानबाग के साथ हुए अत्याचारों के पीछे की वजह गिना रहा था ।   ये आजकल हापुड़ के किसी गांव में परिवार के  साथ ऐसी ज़िंदगी बिता रहा है जिसे आमतौर पर ठीकठाक  ही माना जाता है । मीडिया ने सोहनलाल को ढूंढ निकाला और कई चैनलों पर उसके इंटरव्यू भी चले ,टीवी पर इस बात को लेकर पैनल डिस्कशन भी हुए कि क्या एक शख्स को 42 साल की  कैद जैसी सज़ा देने वाले शख्स के लिए महज़ सात साल की सज़ा काफी है, क्या उस पर मृत्युदण्ड का अपराध नहीं चलना चाहिए ।


सोहनलाल को उस वक्त महज़ सात साल की सज़ा हुई  थी और उसके किए का  शिकार एक युवा लड़की 42 साल तक एक ऐसे जीवन को जीने के लिए अभिशप्त  हो गई जिसे ज़िंदगी कहने पर भी सवाल खड़े होते रहे । ये भी बात भी कम अहम नहीं कि इस ज़िंदगी से निजात भी उसे खुद की नहीं, शायद वक्त की मर्ज़ी से मिली

हालिया टीवी चैनल इंटरव्यू में  पत्रकार ने चार बार सोहनलाल से एक सवाल बार-बार पूछा कि क्या उसे कभीअपने किए पर पछतावा होता है, सोहनलाल  ने भी बार-बार एक ही जवाब दिया ..हां हां मैंने उसको थप्पड़ मारा इस बात का दुख हमें है ।

पत्रकार ने सवाल शायद जिस जवाब को सुनने के लिए बार-बार पूछा वो सोहनलाल ने दिया नहीं । न उसने ये माना कि उसने थप्पड़ मारने के अलावा कुछ और किया और न खुद को किसी भी तरह का दोषी माना । सोहनलाल अब बालबच्चेदार आदमी है उसका भरा पूरा परिवार है और हो सकता है कि फिर से जेल जाने के डर से वो खुद को बेकसूर बता रहा हो । सोहनलाल और दुनिया के तकाज़े को देखें तो लगता है कि कोई भी दोषी ऐसे सवाल पर ऐसे ही रिएक्ट करता ,  लेकिन क्या कोई शख्स इस बात से इंकार कर सकता है कि अरूणा के साथ जो कुछ हुआ वो इतना ज्यादा दर्दनाक और त्रासद था कि उसमें सोहनलाल के क्रिमिनल रिकॉर्ड न होने और अपनी सज़ा पूरी काटने के तर्क उस नमक की तरह तीखे महसूस होते हैं जो किसी जख्म पर तब डाला जाता है जब सूख चुके ज़ख्म को फिर से कुरेदा गया हो ।

 इंटरव्यू में वो कहता है कि उसे उसके कर्मो सज़ा मिल चुकी है और वो अब शांति से रहना चाहता है । जो भी शख्स अरूणा की कहानी को जानता है दिल में एक पीड़ा की उस फांस को ज़रुर महसूस करता होगा जो इतने साल अरूणा ने अपने मन और शरीर दोनों पर झेली,  किसी के भी ज़हन में ये बात तो जरुर आती होगी कि कोमा में पड़ी उस लड़की का अंतर्मन विचारों और भावनाओं की किन यात्राओं का हिस्सा बनता होगा । दिल और दिमाग में किस तरह के चित्र आते होंगे । कैसे एक 25 साल की लड़की ने अस्पताल के बेड पर ही पहले युवा से अधेड़ और फिर एक वृद्धा के  किरदार को जिया होगा । इन्ही पीड़ाओं से गुज़रते हुए दिमाग में ख्याल उसके गुनहगार को लेकर भी ज़रुर ख्याल आते होंगे, कैसा शख्स होगा वो जिसने एक जिंदादिल लड़की का ये हाल किया , क्या अपनी करतूतों का बोझ उसके दिल -दिमाग पर पड़ता होगा , क्या उसे अपने किए पर पश्चाताप हुआ होगा । क्या इन 42 सालों में उसने ये जानने की कोशिश की उसके गुनाहों की सज़ा जो महिला भुगत रही है
वो किस हाल में है ...?

इन सवालों से जूझते वक्त अगर आप उसी आरोपी को ये कहते सुनें कि नहीं वो अरूणा से कभी मिलने अस्पताल नहीं गया ,या फिर उसे सिर्फ अरूणा को थप्पड़ मारने का अफसोस है , और उसने तो अपनी सज़ा काट ली है । तब जान लीजिए आपको अपने सवालों का जवाब मिल चुका है ।

इंटरव्यू में इतना बोलने के बाद सोहनलाल का बेटा उसे सबसे भीतर वाले कमरे में एक मटमैली सी चारपाई पर बिठा देता है और कैमरे का जूम सोहनलाल के ठंडे, भावहीन चेहरे पर अटक जाता है। एक ऐसा चेहरा जिसमें कुछ भी ढूंढ पाना नामुमकिन है ।  लेकिन अब आप सोहनलाल को एक और फ्रेम बर्दाश्त नहीं कर पाते हैं और आगे वाले चैनल पर बढ़ जाते हैं ।

शनिवार, 13 जून 2015

हर एक फ्रेंड ज़रुरी होता है ।



किसी ने सही ही कहा कि लालू और नीतीश रोशनी में ही कपड़े बदल रहे हैं , बिहार में जनता परिवार के नाम पर जो कुछ हुआ  वो इतना सिंथेटिक दिखा कि उसके आगे 'पॉलिएस्टर' के कपड़े की कृत्रिमता भी कम मॉडिफाइड लगे । सांप्रदायिकतावाद के खिलाफ़ कुर्बानी ज़रुरी है....सही है बिल्कुल , कुर्बानी न हो गई मोबाइल प्रोवाइडर कंपनी की वो एड हो गई जिसमें वो गाना चलता है ..... हर एक फ्रेंड जरुरी होता है ,  लालू यादव जानते हैं कि इस वक्त नीतीश के लिए वो नहीं, उनके लिए नीतीश कुमार बेहद ज़रुरी हैं । यानि लालू यादव तो एकला चलो का सोच भी नहीं सकते ।

नीतीश को नेता मानने के अलावा कोई चारा है ही नहीं,  खुद लड़ सकते नहीं,  पत्नी और बच्चों पर अब दांव खेलने का मतलब जगहंसाई के अलावा कुछ है नहीं तो करते क्या.... नीतीश और लालू के बीच समझौता होने से पहले पावरप्ले की जो  नौटंकी कुछ दिन चलती रही उसने बिहार के दोनों खांटी राजनेताओं के बीच 'शुद्ध देसी ब्रोमांस' के ऐसे  नज़ारे दिखाए  जिसके बाद इनकी दोस्ती के लंबे चलने पर शुबहा तो खड़ा हो ही जाता है , क्योंकि रोमांस के बाद दोस्ती तो कुदरत के नियमों के ही खिलाफ़ है ।  कांग्रेस आरजेडी को भाव दे नहीं रहा , तो लालू अब करें क्या नीतीश के आगे सिर  झुकाने के अलावा फिलहाल कोई रास्ता नहीं दिखता ।

सिचुएशन कुछ ऐसी है जिसमें दोनों अब 'फ्रेनेमी' बन गए हैं, 'फ्रेनेमी बोले तो रिश्ते के बीच एक महीन सी लाईन है जहां एक तरफ फ्रेंडशिप तो दूसरी ओर 'एनमिटी' की दीवार । अब बिहार चुनाव तक तो नीतीश और लालू को  'फ्रेनेमी ज़ोन' में ही रहना पड़ेगा


समाजवादियों के इकट्ठे होने का राग जिस तानपुरे से छेड़ा गया वो  कब का भोथरा हो गया है , इसलिए हम एक हैं का राग इतना बेसुरा है कि कान में दर्द ही होने लग जाए । शरद यादव, मुलायम जैसे साइड कैरेक्टर्स की मौजूदगी में  लालू-नीतीश स्टारर  बिहार लवस्टोरी 2015 का अंत कैसे होगा इसका अंदाज़ा भी लगाना बेकार है , ये अलग बात है कि इस सबने बिहार चुनाव की ऐसी पटकथा लिख दी है जिसमें सब तरह के फॉर्मूला मसालों की गंध अभी से दर्शको यानि वोटरों को आने लगी है ।

चुनौती वही है क्या इस सब सियासी नाटक के बीच बिहार का वोटर   इस सतही मनोरंजन का हिस्सा बनने के लिए फिर से फ्रंट सीट की टिकट लेगा या फिर कुछ फैसला सोच समझकर भी लिया जाएगा । लेकिन लोग करें भी तो क्या विकल्प है भी नहीं...डेविड धवन मसाला नहीं तो फिर रोहित शेट्टी का एक्शन ...च्वाइस बिहार की जनता की है ।

बुधवार, 10 जून 2015

एक शुरुआत, एक कोशिश जारी रहेगी....

मन का लैंडस्केप (Man Ka Landscape) जैसे मन न हुआ कोई तस्वीर हो गई , सही बात है मन में भी तो कई
तरह के चित्र विचारों और भावनाओं की शक्ल में उमड़ते ही रहते हैं हर वक्त ....बस उन्हीं को शब्दों में
उतारने की कोशिश है ।